संस्कृति >> पुण्यभूमि भारत पुण्यभूमि भारतसुधा मूर्ति
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प्रस्तुत है पुण्यभूमि भारत...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सुप्रसिद्ध लेखिका श्रीमती सुधा मूर्ति के ये प्रेरक संस्मरण भारतीय
संस्कृति जीवन मूल्यों और संस्कारों से हमारा परिचय कराते हैं। भावपूर्ण
शैली और बेहद पठनीय ये अनुकरणीय प्रसंग जहाँ हमें अपने गौरवशाली अतीत का
स्मरण कराते हैं, वहीं उज्ज्वल भविष्य की ओर हमें उन्मुख करते हैं। यही वे
मूल्य हैं जो भारत को ‘पुण्यभूमि’ बनाते हैं।
प्राक्कथन
जीवन के यथार्थ अनुभवों पर आधारित इससे पूर्व प्रकाशित अपनी दो पुस्तकों
‘अनमोल प्रसंग’ एवं ‘अपना दीपक स्वयं
बनें’ की
सफलता के बाद मैं अपने व्यापक जीवनानुभवों को पाठकों के बीच बाँटने को
उत्साहित हुई हूँ। प्रस्तुत पुस्तक में वर्णित इन अनुभवों में सबकुछ
ईमानदारी के साथ स्वीकार किया गया है।
वास्तव में, सबके अपने अपने अनुभव होते हैं; लेकिन मैं अमीर और गरीब-दोनों वर्गों के संपर्क में रही हूँ, अतः मेरे अनुभवों का परिदृश्य भी अधिक व्यापक है। यदि आप संवेदनशील हैं और बिना किसी लोभ या स्वार्थ के अपने विचार और अनुभव व्यक्त कर सकें तो आप भी अपने अनुभव लिख सकते हैं।
सार्वजनिक जीवन में मेरी हैसियत (पोजीशन) के कारण मेरा कार्यक्षेत्र भी अधिक विस्तृत हो सकता है‘ लेकिन ‘ममता’ में मीरा, ‘बँटवारे की रेखा’ में रूपा कपूर, तक्षशिला की यात्रा के समय ‘परदेसी’, ‘एहसान’ में सुनामी -अनुभव जैसे अनुभव कुछ ही लोगों को मिलते हैं।
मैंने हमेशा ध्यान रखा है कि किसी के बारे में लिखने से पूर्व मैं पहले उनकी स्वीकृति ले लूँ। मैंने अपने जीवन से बहुत कुछ सीखा है, क्योंकि मैं माँ हूँ, शिक्षिका हूँ, लेखिका हूँ और समाज- सेविका हूँ।
अनेक लोगों के लिए ‘इन्फोसिस-’फाउंडेशन एक धर्मार्थ संगठन है। यह बहुत समृद्ध ‘इन्फोसिस टेक्नोलॉजी लिमिटेड’ की एक शाखा मात्र है। लेकिन मेरे लिए यह इससे भिन्न और बढ़कर है।
मैं इस संस्थान से इसके जन्म से ही जुड़ी हुई हूँ। प्रारंभ में इसका और मेरा रिश्ता माँ- बेटे के समान था। आगे चलकर यह संस्थान मेरी माँ की तरह बन गया और मैं एक बच्चे की तरह। इसकी अँगुली पकड़कर मैंने कई चढ़ाव देखे तथा प्रशंसा और आलोचना और वरदान अभिशाप आदि कई सुखद व दुःखद अनुभव किए। चाहे कठिन समय हो या आनंद के क्षण, हमने एक -दूसरे का साथ नहीं छोड़ा। मैंने ‘इन्फोसिस फाउंडेशन’ को हमेशा अपने निजी जीवन से ज्यादा महत्त्व दिया है।
प्रस्तुत कृति में मैंने अपनी आपबीती मात्र लिखी है, और कुछ नहीं। मात्र उन घटनाओं का वर्णन किया है, जिन्होंने मुझे गहरे तक उद्वेलित प्रभावित किया है। मैंने न तो किसी की हैसियत पर ध्यान दिया है, न पद पर और न ही ख्याति पर; लोग अभी भी सच की ओर आकर्षित होते हैं। सत्य की अपनी शक्ति होती है। इसीलिए हमारे मनीषी कह गए हैं-सत्यं, शिवं, सुन्दरम्।
मैंने हमेशा की तरह यही निर्णय लिया है कि इस पुस्तक से प्राप्त रॉयल्टी को भी धर्माथ कार्यों में लगाया जाएगा।
वास्तव में, सबके अपने अपने अनुभव होते हैं; लेकिन मैं अमीर और गरीब-दोनों वर्गों के संपर्क में रही हूँ, अतः मेरे अनुभवों का परिदृश्य भी अधिक व्यापक है। यदि आप संवेदनशील हैं और बिना किसी लोभ या स्वार्थ के अपने विचार और अनुभव व्यक्त कर सकें तो आप भी अपने अनुभव लिख सकते हैं।
सार्वजनिक जीवन में मेरी हैसियत (पोजीशन) के कारण मेरा कार्यक्षेत्र भी अधिक विस्तृत हो सकता है‘ लेकिन ‘ममता’ में मीरा, ‘बँटवारे की रेखा’ में रूपा कपूर, तक्षशिला की यात्रा के समय ‘परदेसी’, ‘एहसान’ में सुनामी -अनुभव जैसे अनुभव कुछ ही लोगों को मिलते हैं।
मैंने हमेशा ध्यान रखा है कि किसी के बारे में लिखने से पूर्व मैं पहले उनकी स्वीकृति ले लूँ। मैंने अपने जीवन से बहुत कुछ सीखा है, क्योंकि मैं माँ हूँ, शिक्षिका हूँ, लेखिका हूँ और समाज- सेविका हूँ।
अनेक लोगों के लिए ‘इन्फोसिस-’फाउंडेशन एक धर्मार्थ संगठन है। यह बहुत समृद्ध ‘इन्फोसिस टेक्नोलॉजी लिमिटेड’ की एक शाखा मात्र है। लेकिन मेरे लिए यह इससे भिन्न और बढ़कर है।
मैं इस संस्थान से इसके जन्म से ही जुड़ी हुई हूँ। प्रारंभ में इसका और मेरा रिश्ता माँ- बेटे के समान था। आगे चलकर यह संस्थान मेरी माँ की तरह बन गया और मैं एक बच्चे की तरह। इसकी अँगुली पकड़कर मैंने कई चढ़ाव देखे तथा प्रशंसा और आलोचना और वरदान अभिशाप आदि कई सुखद व दुःखद अनुभव किए। चाहे कठिन समय हो या आनंद के क्षण, हमने एक -दूसरे का साथ नहीं छोड़ा। मैंने ‘इन्फोसिस फाउंडेशन’ को हमेशा अपने निजी जीवन से ज्यादा महत्त्व दिया है।
प्रस्तुत कृति में मैंने अपनी आपबीती मात्र लिखी है, और कुछ नहीं। मात्र उन घटनाओं का वर्णन किया है, जिन्होंने मुझे गहरे तक उद्वेलित प्रभावित किया है। मैंने न तो किसी की हैसियत पर ध्यान दिया है, न पद पर और न ही ख्याति पर; लोग अभी भी सच की ओर आकर्षित होते हैं। सत्य की अपनी शक्ति होती है। इसीलिए हमारे मनीषी कह गए हैं-सत्यं, शिवं, सुन्दरम्।
मैंने हमेशा की तरह यही निर्णय लिया है कि इस पुस्तक से प्राप्त रॉयल्टी को भी धर्माथ कार्यों में लगाया जाएगा।
सुधा मूर्ति
1
साम्यवादी से समाजवादी
मूर्ति शरमीले स्वभाव का एक आदर्शवादी नवयुवक था। वह पेरिस के तत्कालीन
नवनिर्मित चार्ल्स डेगले हवाई अड्डे पर मालवाहक विमानों के संचालन के लिए
सॉफ्टवेयर का निर्माण करनेवाली एक फ्रांसीसी कंपनी
‘सीसा’
(SESA) की टीम में एक सदस्य के रूप में कार्यरत था।
उन दिनों वह अच्छा पैसा कमाता था और अपनी आमदनी का अधिकांश भाग तीसरी दुनिया के देशों (विकासशील देशों) के विकास में संलग्न विभिन्न संस्थानों को अनुदान स्वरूप दे दिया करता था। वह अपने साम्यवादी विचारों के साथ भारत वापस आना चाहता था।
अब वह पेरिस से वापस मैसूर की यात्रा पर था। पेरिस से काबुल तक की यात्रा में उसे कई साधनों का प्रयोग करना पड़ा; कभी कार में लिफ्ट लेकर तो कभी ट्रेन में बैठकर और कभी कुछ दूर पैदल ही चलकर उसने अपनी काबुल तक की यात्रा पूरी की।
मूर्ति को क्या मालूम था कि उसकी वापसी की यात्रा उसके अपने गंतव्य को भी बदल देगी और साथ ही कई अन्य जिंदगियों को प्रभावित करेगी। सर्दियों में एक इतवार की सुबह थी और मूर्ति इटली के किसी कस्बे से चलकर निस (तत्कालीन यूगोस्लाविया और बुल्गारिया के मध्य स्थित एक सीमांत नगर) तक पहुँचा था। वहाँ उसे लगा कि इस साम्यवादी क्षेत्र में किसी से लिफ्ट माँगकर यात्रा करना आसान नहीं है; इसलिए उसने निस से बुल्गारिया की राजधानी सोफिया तक की यात्रा रेलगाड़ी से करने का निश्चय किया। मन में कुछ सोचता हुआ वह निकट के रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा। स्टेशन पहुँचकर उसने नाश्ता करना चाहा; लेकिन उसकी कोशिश बेकार गई, क्योंकि वहाँ इटली की मुद्रा लेने के लिए कोई तैयार नहीं था और सारे बैंक बंद थे। निराश होकर वह प्लेटफॉर्म पर थोड़ी देर बैठा रहा, फिर वहीं सो गया। उसकी नींद रात को आठ बजे खुली, जब सोफिया एक्सप्रेस स्टेशन पर आ पहुंची। वैसी यह गाड़ी वहां लगभग दो घंटे तक रुकती थी।
मूर्ति झटपट उठा और जाकर गाड़ी में बैठ गया। उसे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि जिस डिब्बे में वह बैठा था, उसमें कोई और यात्री नहीं था। स्वभाव से शरमीला तथा अपने आप में मगन रहनेवाला मूर्ति सचमुच बहुत खुश हुआ होगा।
अब वह आराम से अपनी सीट पर बैठकर एक किताब पढ़ने लगा। थोड़ी देर बाद एक लंबे कद की, सुनहरे बालोंवाली खूबसूरत लड़की ने डिब्बे में प्रवेश किया और मूर्ति के बगलवाली सीट पर बैठ गई। खैर, मूर्ति ने मुसकराकर उसका अभिवादन करना जरूरी नहीं समझा। उसने किताब से अपनी नजर भी नहीं उठाई। स्त्रियाँ तो स्वभाव से ही ज्यादा बोलनेवाली होती हैं। वे किसी भी देश की हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। खैर, वह लड़की ज्यादा देर तक चुप नहीं बैठ सकी। उसने चुप्पी तोड़ी और अब दोनों के बीच बातचीत शुरू हो गई। बातचीत के दौरान उसे पता चला कि मूर्ति भारत से है और उन दिनों भारत साम्यवाद तथा समाजवाद की ओर अग्रसर था। उसने बातचीत का विषय बदला। अब दोनों भारत की स्थिति और नीतियों के बारे में चर्चा करने लगे। यात्रा लंबी थी और वह लड़की भी चुप रहनेवाली नहीं थी, अतः कुछ देर बाद दोनों अपने व्यक्तिगत मामलों पर आ गए। लड़की ने पहले अपने बारे में बताना शुरू किया-
‘‘मैं सोफिया की रहनेवाली हूँ। मुझे सरकार द्वारा पी-एच. डी. करने के लिए कीव यूनिवर्सिटी में भेजा गया था। वहाँ मेरी मुलाकात पूर्वी बर्लिन में रहनेवाले एक खूबसूरत नवयुवक से हुई। धीरे-धीरे हम दोनों एक दूसरे को चाहने लगे और शादी करने का फैसला कर लिया।’’ बात पूरी होते-होते लड़की जोर -जोर से आहें भरने लगी।
फिर क्या हुआ ? आपने शादी क्यों नहीं की ?’’ मूर्ति ने सहानुभूति जताते हुए पूछा।
हमारी शादी तो हो गई, लेकिन यही हमारे लिए समस्या बन गई। हमने अपने-अपने देश की सरकारों से अनुमति लेने के लिए प्रार्थना पत्र भेजा। प्रार्थना पत्र तो स्वीकार कर लिया गया, लेकिन मेरे देश बुल्गारिया की सरकार ने यह शर्त रख दी कि मुझे अपने अनुबंध की अवधि तक बुल्गारिया में ही रहना होगा; उधर मेरे पति को उस अवधि तक पूर्वी जर्मनी में रहने के लिए कहा गया। अब अपने पति से मिलने के लिए मैं छह महीने में एक बार पूर्वी जर्मनी जाती हूँ और मेरे पति भी मुझसे मिलने के लिए छह महीने में एक बार सोफिया आते हैं। हमारे मन में भी यह लालसा होती है कि आम लोगों की तरह हम भी साथ-साथ रहकर एक सुखपूर्ण विवाहित जीवन व्यतीत करें; लेकिन इस शर्त के कारण अब हम सारी आशाएँ खो बैठे हैं।’’ बताते-बताते वह लड़की उदास हो गई।
उसकी इस निराशापूर्ण स्थिति के बारे में सुनकर मूर्ति का दिल पसीज उठा। वह बोला, ‘‘यह व्यवस्था तो वास्तव में अन्यायपूर्ण है। विवाह के लिए अपने जीवन साथी का चुनाव या व्यवसाय का चुनाव अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मामलों में इस प्रकार का हस्तक्षेप तो...। चाहे वह पूँजीवादी देश हो या फिर साम्यवादी।’’
दोनों की बातचीत के दौरान ही लड़की की बगलवाली सीट पर एक अन्य लड़का आकर बैठ गया था। उसने एक दो बार लड़की से बात करने की कोशिश की थी, पर उसने रुचि नहीं ली। मूर्ति और वह लड़की दोनों फ्रेंच में बातें कर रहे थे और शायद लड़की के बगल में बैठा लड़का फ्रेंच न जानने के कारण कुछ समझ नहीं पा रहा था। इधर इन दोनों की बातचीत चल रही थी कि वह लड़का अचानक गायब हो गया और थोड़ी देर बाद अपने साथ दो हट्टे-कट्टे आदमियों को लेकर आ गया। उनमें से एक आदमी तो किसी से कुछ बोले बिना मूर्ति के पास पहुँचा और उसका कॉलर पकड़कर उसे प्लेटफॉर्म की ओर खींचने लगा। दूसरा आदमी लड़की को पकड़कर दूर ले गया।
मूर्ति को एक छोटी सी अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया गया। कोठरी बहुत गंदी और सीलन भरी थी। उसमें बैठने के लिए कुछ भी नहीं था और फर्श बिलकुल ठंडा पड़ा था। हाँ कोठरी के एक कोने में शौचालय जरूर बना हुआ था।
अपने साथ अचानक हुए ऐसे व्यवहार से मूर्ति ठगा सा रह गया था। वह कुछ देर तक कमरे में एक कोने से दूसरे कोने में पैर पटकता रहा। उसे अपने साथ साथ उस लड़की की भी चिंता हो रही थी। थोड़ी देर पहले गाड़ी में लड़की के साथ हुई बातचीत के बारे में वह सोचने लगा। उसे ध्यान आया कि जब यह घटना घटी तब वे किसी साम्यवादी देश में नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में चर्चा कर रहे थे। मूर्ति को लगा कि शायद इसी से लड़की के बगल में बैठा लड़का एकदम आवेश में आ गया और वह सब कर बैठा।
‘क्या हमसे कोई गलती हुई ? कब तक रहना पड़ेगा मुझे यहाँ ? मेरे भविष्य का क्या होगा ? अगर मेरे साथ कोई अनहोनी हो गई तो मेरे घरवालों का क्या होगा ?
उन्हें तो पता भी नहीं चलेगा।’ सोच सोचकर मूर्ति का मन घबराने लगा था। उसे मैसूर में रह रहे अपने परिवार के लोगों की चिंता हो रही थी।
मूर्ति के पिता एक सेवानिवृत्त कर्मचारी थे और हाल में वे लकवा के शिकार हो गए थे। इस कारण परिवार में तीन छोटी बहनों के विवाह की जिम्मेदारी भी मूर्ति के कंधों पर ही थी। खैर, समय बीत रहा था और उस कोठरी में मूर्ति को दिन या रात का आभास नहीं हो पा रहा था, क्योंकि कोठरी चारों से बंद थी और पासपोर्ट तथा अन्य चीजों के साथ-साथ उसकी घड़ी भी उन लोगों ने छीन ली थी। पिछले लगभग नब्बे घंटों से उसने कुछ भी नहीं खाया था। कोठरी के भीतर से उसे और कुछ नहीं, केवल गाड़ियों के आने जाने की आवाज सुनाई दे रही थी। मूर्ति अपने खयालों में खोया एक ओर बैठा था। तभी अचानक कमरे का दरवाजा खुला और एक गार्ड कमरे के अंदर घुस गया। वह मूर्ति को पकड़कर प्लेटफॉर्म पर ले जाने लगा। गार्ड ने ही उसे बताया कि उसका पासपोर्ट उसे वापस कर दिया जाएगा, लेकिन इस्तांबुल पहुँचने के बाद।
‘‘क्या अपराध था मेरा ?’’ मूर्ति ने डिब्बे का दरवाजा खोल रहे सिपाही से पूछा।
‘‘तुम शासन के खिलाफ बातें क्यों कर रहे थे ? वह लड़की कौन थी ?’’ सिपाही ने तीव्र निगाहों से मूर्ति को घूरते हुए पूछा।
‘‘वह भी मेरी तरह ही एक यात्री थी।’’
‘‘तो उसका तुमसे इस तरह बात करने का क्या अर्थ था ?’’ दूसरे सिपाही ने मूर्ति की बात को बीच में रोकते हुए लगभग चीखकर पूछा।
‘‘इसमें गलत क्या था ?’’ मूर्ति ने विरोध किया।
‘‘इस तरह के मामलों पर चर्चा करना हमारे देश में कानून के खिलाफ है।’’ सिपाही अपनी बात पर जोर देता हुआ बोला। मूर्ति एक बार फिर लड़की के बारे में सोचने लगा था। वह उसके बारे में जानना चाहता था, इसलिए उसने पूछ लिया, वह लड़की कहाँ है ?’’
‘‘वह जानना तुम्हारा काम नहीं है। हमने तुम्हारे पासपोर्ट की जाँच कर ली है। तुम हमारे मित्र देश भारत से हो और इसीलिए हम तुम्हें छोड़ रहे हैं। अब ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करो। इससे पहले कि तुम और कोई गलती कर बैठो, हमारा देश छोड़ दो।’’ पहले सिपाही ने उसे डिब्बे में धकेलकर दरावाजा बंद करते हुए कहा।
गाड़ी चलने लगी थी।
मूर्ति ने लगभग चार दिनों से कुछ खाया नहीं था, न ही सोया था इस कारण उसमें चलने की भी शक्ति नहीं रह गई थी। किसी तरह वह खिड़की के पासवाली सीट तक पहुँचा और वहीं बैठ गया। वह वापस उसी गाड़ी में आ गया था, लेकिन पूरे बानबे घंटों के बाद। उस दिन की स्थिति और आज की स्थिति में कितना अंतर था’ उस दिन तो वह कितने मजे से कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओ और हो चिन- मिन पेट भरा हुआ था। और आज वह एकदम बदल गया था। किसी साम्यवादी देश में रहने का अर्थ अब उसे मालूम हो गया था। ऐसी व्यवस्था से अब उसका विश्वास पूरी तरह उठ चुका था, जिसमें लोगों को अपने विचार व्यक्त करने की मौलिक स्वतंत्रता भी न हो और जिसमें अपने हितैषियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता हो’ उसे लोगों के लिए स्वतंत्रता के महत्त्व का एहसास हो गया था। उसने यह भी एहसास किया कि नारों, सभाओं और संबोधनों से गरीबी दूर नहीं हो सकती; बल्कि उसके लिए अधिक –से- अधिक रोजगार उपलब्ध कराना आवश्यक है। यही सब सोचते हुए उसने वहीं और और उसी क्षण फैसला किया कि वह भारत से गरीबी की समस्या दूर करने के लिए लिए वैधानिक और नीतिपूर्ण तरीकों का उपयोग करके धनोत्पादन करेगा।
भारत वापस आने पर उसने कई कंपनियों में कार्य किया। पहले एस.आर.आई. नामक कंपनी में, फिर अपनी छोटी सी कंपनी सॉफ्ट्रोनिक्स में और उसके बाद पी.सी.एस. कंपनी में प्रमुख सॉफवेयर इंजीनियर के रूप में। उसके मन में कहीं यह एक इच्छा थी कि वह अपने बल पर एक निर्यातोन्मुखी कंपनी की शुरुआत करे। निस में उसके साथ हुई घटना ने उसकी सोच की दिशा बदल दी थी। अब वह भाषण की स्वतंत्रता का महत्त्व समझ गया था और यह भी समझ गया था कि महज सिद्धांतों पर चलने की बजाय राजस्व में वृद्धि करने के लिए धनार्जन करना अधिक महत्त्वपूर्ण है। इन्हीं विचारों के साथ अंत में उसने इन्फोसिस कंपनी की शुरुआत की।
इतने समय में ही साम्यवाद में विश्वास रखनेवाला मूर्ति समाजवादी पूँजीवादी व्यवस्था का प्रशंसक बन गया।
उन दिनों वह अच्छा पैसा कमाता था और अपनी आमदनी का अधिकांश भाग तीसरी दुनिया के देशों (विकासशील देशों) के विकास में संलग्न विभिन्न संस्थानों को अनुदान स्वरूप दे दिया करता था। वह अपने साम्यवादी विचारों के साथ भारत वापस आना चाहता था।
अब वह पेरिस से वापस मैसूर की यात्रा पर था। पेरिस से काबुल तक की यात्रा में उसे कई साधनों का प्रयोग करना पड़ा; कभी कार में लिफ्ट लेकर तो कभी ट्रेन में बैठकर और कभी कुछ दूर पैदल ही चलकर उसने अपनी काबुल तक की यात्रा पूरी की।
मूर्ति को क्या मालूम था कि उसकी वापसी की यात्रा उसके अपने गंतव्य को भी बदल देगी और साथ ही कई अन्य जिंदगियों को प्रभावित करेगी। सर्दियों में एक इतवार की सुबह थी और मूर्ति इटली के किसी कस्बे से चलकर निस (तत्कालीन यूगोस्लाविया और बुल्गारिया के मध्य स्थित एक सीमांत नगर) तक पहुँचा था। वहाँ उसे लगा कि इस साम्यवादी क्षेत्र में किसी से लिफ्ट माँगकर यात्रा करना आसान नहीं है; इसलिए उसने निस से बुल्गारिया की राजधानी सोफिया तक की यात्रा रेलगाड़ी से करने का निश्चय किया। मन में कुछ सोचता हुआ वह निकट के रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़ा। स्टेशन पहुँचकर उसने नाश्ता करना चाहा; लेकिन उसकी कोशिश बेकार गई, क्योंकि वहाँ इटली की मुद्रा लेने के लिए कोई तैयार नहीं था और सारे बैंक बंद थे। निराश होकर वह प्लेटफॉर्म पर थोड़ी देर बैठा रहा, फिर वहीं सो गया। उसकी नींद रात को आठ बजे खुली, जब सोफिया एक्सप्रेस स्टेशन पर आ पहुंची। वैसी यह गाड़ी वहां लगभग दो घंटे तक रुकती थी।
मूर्ति झटपट उठा और जाकर गाड़ी में बैठ गया। उसे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि जिस डिब्बे में वह बैठा था, उसमें कोई और यात्री नहीं था। स्वभाव से शरमीला तथा अपने आप में मगन रहनेवाला मूर्ति सचमुच बहुत खुश हुआ होगा।
अब वह आराम से अपनी सीट पर बैठकर एक किताब पढ़ने लगा। थोड़ी देर बाद एक लंबे कद की, सुनहरे बालोंवाली खूबसूरत लड़की ने डिब्बे में प्रवेश किया और मूर्ति के बगलवाली सीट पर बैठ गई। खैर, मूर्ति ने मुसकराकर उसका अभिवादन करना जरूरी नहीं समझा। उसने किताब से अपनी नजर भी नहीं उठाई। स्त्रियाँ तो स्वभाव से ही ज्यादा बोलनेवाली होती हैं। वे किसी भी देश की हों, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। खैर, वह लड़की ज्यादा देर तक चुप नहीं बैठ सकी। उसने चुप्पी तोड़ी और अब दोनों के बीच बातचीत शुरू हो गई। बातचीत के दौरान उसे पता चला कि मूर्ति भारत से है और उन दिनों भारत साम्यवाद तथा समाजवाद की ओर अग्रसर था। उसने बातचीत का विषय बदला। अब दोनों भारत की स्थिति और नीतियों के बारे में चर्चा करने लगे। यात्रा लंबी थी और वह लड़की भी चुप रहनेवाली नहीं थी, अतः कुछ देर बाद दोनों अपने व्यक्तिगत मामलों पर आ गए। लड़की ने पहले अपने बारे में बताना शुरू किया-
‘‘मैं सोफिया की रहनेवाली हूँ। मुझे सरकार द्वारा पी-एच. डी. करने के लिए कीव यूनिवर्सिटी में भेजा गया था। वहाँ मेरी मुलाकात पूर्वी बर्लिन में रहनेवाले एक खूबसूरत नवयुवक से हुई। धीरे-धीरे हम दोनों एक दूसरे को चाहने लगे और शादी करने का फैसला कर लिया।’’ बात पूरी होते-होते लड़की जोर -जोर से आहें भरने लगी।
फिर क्या हुआ ? आपने शादी क्यों नहीं की ?’’ मूर्ति ने सहानुभूति जताते हुए पूछा।
हमारी शादी तो हो गई, लेकिन यही हमारे लिए समस्या बन गई। हमने अपने-अपने देश की सरकारों से अनुमति लेने के लिए प्रार्थना पत्र भेजा। प्रार्थना पत्र तो स्वीकार कर लिया गया, लेकिन मेरे देश बुल्गारिया की सरकार ने यह शर्त रख दी कि मुझे अपने अनुबंध की अवधि तक बुल्गारिया में ही रहना होगा; उधर मेरे पति को उस अवधि तक पूर्वी जर्मनी में रहने के लिए कहा गया। अब अपने पति से मिलने के लिए मैं छह महीने में एक बार पूर्वी जर्मनी जाती हूँ और मेरे पति भी मुझसे मिलने के लिए छह महीने में एक बार सोफिया आते हैं। हमारे मन में भी यह लालसा होती है कि आम लोगों की तरह हम भी साथ-साथ रहकर एक सुखपूर्ण विवाहित जीवन व्यतीत करें; लेकिन इस शर्त के कारण अब हम सारी आशाएँ खो बैठे हैं।’’ बताते-बताते वह लड़की उदास हो गई।
उसकी इस निराशापूर्ण स्थिति के बारे में सुनकर मूर्ति का दिल पसीज उठा। वह बोला, ‘‘यह व्यवस्था तो वास्तव में अन्यायपूर्ण है। विवाह के लिए अपने जीवन साथी का चुनाव या व्यवसाय का चुनाव अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मामलों में इस प्रकार का हस्तक्षेप तो...। चाहे वह पूँजीवादी देश हो या फिर साम्यवादी।’’
दोनों की बातचीत के दौरान ही लड़की की बगलवाली सीट पर एक अन्य लड़का आकर बैठ गया था। उसने एक दो बार लड़की से बात करने की कोशिश की थी, पर उसने रुचि नहीं ली। मूर्ति और वह लड़की दोनों फ्रेंच में बातें कर रहे थे और शायद लड़की के बगल में बैठा लड़का फ्रेंच न जानने के कारण कुछ समझ नहीं पा रहा था। इधर इन दोनों की बातचीत चल रही थी कि वह लड़का अचानक गायब हो गया और थोड़ी देर बाद अपने साथ दो हट्टे-कट्टे आदमियों को लेकर आ गया। उनमें से एक आदमी तो किसी से कुछ बोले बिना मूर्ति के पास पहुँचा और उसका कॉलर पकड़कर उसे प्लेटफॉर्म की ओर खींचने लगा। दूसरा आदमी लड़की को पकड़कर दूर ले गया।
मूर्ति को एक छोटी सी अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया गया। कोठरी बहुत गंदी और सीलन भरी थी। उसमें बैठने के लिए कुछ भी नहीं था और फर्श बिलकुल ठंडा पड़ा था। हाँ कोठरी के एक कोने में शौचालय जरूर बना हुआ था।
अपने साथ अचानक हुए ऐसे व्यवहार से मूर्ति ठगा सा रह गया था। वह कुछ देर तक कमरे में एक कोने से दूसरे कोने में पैर पटकता रहा। उसे अपने साथ साथ उस लड़की की भी चिंता हो रही थी। थोड़ी देर पहले गाड़ी में लड़की के साथ हुई बातचीत के बारे में वह सोचने लगा। उसे ध्यान आया कि जब यह घटना घटी तब वे किसी साम्यवादी देश में नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में चर्चा कर रहे थे। मूर्ति को लगा कि शायद इसी से लड़की के बगल में बैठा लड़का एकदम आवेश में आ गया और वह सब कर बैठा।
‘क्या हमसे कोई गलती हुई ? कब तक रहना पड़ेगा मुझे यहाँ ? मेरे भविष्य का क्या होगा ? अगर मेरे साथ कोई अनहोनी हो गई तो मेरे घरवालों का क्या होगा ?
उन्हें तो पता भी नहीं चलेगा।’ सोच सोचकर मूर्ति का मन घबराने लगा था। उसे मैसूर में रह रहे अपने परिवार के लोगों की चिंता हो रही थी।
मूर्ति के पिता एक सेवानिवृत्त कर्मचारी थे और हाल में वे लकवा के शिकार हो गए थे। इस कारण परिवार में तीन छोटी बहनों के विवाह की जिम्मेदारी भी मूर्ति के कंधों पर ही थी। खैर, समय बीत रहा था और उस कोठरी में मूर्ति को दिन या रात का आभास नहीं हो पा रहा था, क्योंकि कोठरी चारों से बंद थी और पासपोर्ट तथा अन्य चीजों के साथ-साथ उसकी घड़ी भी उन लोगों ने छीन ली थी। पिछले लगभग नब्बे घंटों से उसने कुछ भी नहीं खाया था। कोठरी के भीतर से उसे और कुछ नहीं, केवल गाड़ियों के आने जाने की आवाज सुनाई दे रही थी। मूर्ति अपने खयालों में खोया एक ओर बैठा था। तभी अचानक कमरे का दरवाजा खुला और एक गार्ड कमरे के अंदर घुस गया। वह मूर्ति को पकड़कर प्लेटफॉर्म पर ले जाने लगा। गार्ड ने ही उसे बताया कि उसका पासपोर्ट उसे वापस कर दिया जाएगा, लेकिन इस्तांबुल पहुँचने के बाद।
‘‘क्या अपराध था मेरा ?’’ मूर्ति ने डिब्बे का दरवाजा खोल रहे सिपाही से पूछा।
‘‘तुम शासन के खिलाफ बातें क्यों कर रहे थे ? वह लड़की कौन थी ?’’ सिपाही ने तीव्र निगाहों से मूर्ति को घूरते हुए पूछा।
‘‘वह भी मेरी तरह ही एक यात्री थी।’’
‘‘तो उसका तुमसे इस तरह बात करने का क्या अर्थ था ?’’ दूसरे सिपाही ने मूर्ति की बात को बीच में रोकते हुए लगभग चीखकर पूछा।
‘‘इसमें गलत क्या था ?’’ मूर्ति ने विरोध किया।
‘‘इस तरह के मामलों पर चर्चा करना हमारे देश में कानून के खिलाफ है।’’ सिपाही अपनी बात पर जोर देता हुआ बोला। मूर्ति एक बार फिर लड़की के बारे में सोचने लगा था। वह उसके बारे में जानना चाहता था, इसलिए उसने पूछ लिया, वह लड़की कहाँ है ?’’
‘‘वह जानना तुम्हारा काम नहीं है। हमने तुम्हारे पासपोर्ट की जाँच कर ली है। तुम हमारे मित्र देश भारत से हो और इसीलिए हम तुम्हें छोड़ रहे हैं। अब ज्यादा चालाक बनने की कोशिश मत करो। इससे पहले कि तुम और कोई गलती कर बैठो, हमारा देश छोड़ दो।’’ पहले सिपाही ने उसे डिब्बे में धकेलकर दरावाजा बंद करते हुए कहा।
गाड़ी चलने लगी थी।
मूर्ति ने लगभग चार दिनों से कुछ खाया नहीं था, न ही सोया था इस कारण उसमें चलने की भी शक्ति नहीं रह गई थी। किसी तरह वह खिड़की के पासवाली सीट तक पहुँचा और वहीं बैठ गया। वह वापस उसी गाड़ी में आ गया था, लेकिन पूरे बानबे घंटों के बाद। उस दिन की स्थिति और आज की स्थिति में कितना अंतर था’ उस दिन तो वह कितने मजे से कार्ल मार्क्स, लेनिन, माओ और हो चिन- मिन पेट भरा हुआ था। और आज वह एकदम बदल गया था। किसी साम्यवादी देश में रहने का अर्थ अब उसे मालूम हो गया था। ऐसी व्यवस्था से अब उसका विश्वास पूरी तरह उठ चुका था, जिसमें लोगों को अपने विचार व्यक्त करने की मौलिक स्वतंत्रता भी न हो और जिसमें अपने हितैषियों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाता हो’ उसे लोगों के लिए स्वतंत्रता के महत्त्व का एहसास हो गया था। उसने यह भी एहसास किया कि नारों, सभाओं और संबोधनों से गरीबी दूर नहीं हो सकती; बल्कि उसके लिए अधिक –से- अधिक रोजगार उपलब्ध कराना आवश्यक है। यही सब सोचते हुए उसने वहीं और और उसी क्षण फैसला किया कि वह भारत से गरीबी की समस्या दूर करने के लिए लिए वैधानिक और नीतिपूर्ण तरीकों का उपयोग करके धनोत्पादन करेगा।
भारत वापस आने पर उसने कई कंपनियों में कार्य किया। पहले एस.आर.आई. नामक कंपनी में, फिर अपनी छोटी सी कंपनी सॉफ्ट्रोनिक्स में और उसके बाद पी.सी.एस. कंपनी में प्रमुख सॉफवेयर इंजीनियर के रूप में। उसके मन में कहीं यह एक इच्छा थी कि वह अपने बल पर एक निर्यातोन्मुखी कंपनी की शुरुआत करे। निस में उसके साथ हुई घटना ने उसकी सोच की दिशा बदल दी थी। अब वह भाषण की स्वतंत्रता का महत्त्व समझ गया था और यह भी समझ गया था कि महज सिद्धांतों पर चलने की बजाय राजस्व में वृद्धि करने के लिए धनार्जन करना अधिक महत्त्वपूर्ण है। इन्हीं विचारों के साथ अंत में उसने इन्फोसिस कंपनी की शुरुआत की।
इतने समय में ही साम्यवाद में विश्वास रखनेवाला मूर्ति समाजवादी पूँजीवादी व्यवस्था का प्रशंसक बन गया।
2 मातृत्व
कुछ दिन पूर्व मैं एक गोष्ठी ‘मातृत्व’ में भाग लेने
के लिए
गई थी। जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों से जुड़ी महिलाएँ इस गोष्ठी में भाग
लेने के लिए आई थीं। कुछ महिलाएँ चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ी थीं तो कुछ
अनाथालय, दत्तक ग्रह संस्था और अन्य और सरकारी संगठनों से जुड़ी थीं। कुछ
धार्मिक संस्थाओं से जुड़ी महिलाएँ भी थीं और भी थीं और उनमें से कुछ सफल
माताएँ भी थीं। (गोष्ठी के मापदंड़ों के अनुसार, सफल माताएँ वे थीं जिनके
बच्चे सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में और साथ- ही- साथ आर्थिक क्षेत्र में
भी कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य कर चुके थे।
बाहर ढेर सारी दुकानें सजी थीं, जो बच्चों के सामान और विभिन्न प्रकार की पुस्तकों से भरी पड़ी थीं। उनमें से अधिकांश पुस्तकें मातृत्व से संबंधित तथा किशोर वय के बच्चों की देखभाल से संबंधित थीं। कुछ महिलाएँ अच्छी वक्ता भी थीं, जो अपने अनुभवों के आधार पर बोल रही थीं। मीडिया से जुड़े लोग भी वहाँ पहुँच चुके थे। वे विभिन्न ख्यातिप्राप्त लोगों के फोटो ले रहे थे। गोष्ठी आयोजन सामाजिक विज्ञान विभाग की ओर से किया गया था; इस कारण उसमें कई सरकारी अधिकारियों और विभिन्न आयु वर्ग के विद्यार्थियों की भीड़ थी।
जब मेरी बारी आई तो मैंने एक आँखों देखी घटना का वर्णन करते हुए बोलना शुरू किया-
‘‘मंजुला डॉ. आरती के यहाँ खाना बनाने का काम करती थीं। उसका पति ऐसा था कि उसने शायद ही कभी अपनी पत्नी या बच्चों के बारे में सोचा हो। पाँच बच्चों की माँ तो वह पहले से ही थी और जब छठी बार वह गर्भवती हुई तो उसने गर्भपात कराने का मन बना लिया। मातृत्व के बोझ से तो वह पहले ही दबी पड़ी थी, जिसके कारण उसका शरीर भी बहुत कमजोर हो गया था। उसके बच्चों में लड़कियाँ और लड़के-दोनों थे। किंतु इस बार वह बच्चा नहीं चाहती थी, इसलिए उसने ऑपरेशन करवाने का निश्चय कर लिया था।
‘‘उधर, डॉ. आरती कुछ और ही सोच रही थीं। उनकी एक बहन थी, जो संपन्न घराने में ब्याही थी; लेकिन वह निस्संतान थी और किसी नवजात शिशु को गोद लेना चाहती थी। अपनी बहन के बारे में सोचकर ही डॉ. आरती ने मंजुला को सलाह दी-‘मंजुला इस बार तुम बच्चे को जन्म दो। वह लड़का हो या लड़की, मेरी बहन उसे गोद ले लेगी और उसे लेकर यहाँ से दूर चली जाएगी। तुम्हें उसका चेहरा भी देखने की जरूरत नहीं है। इसके बदले में वह तुम्हें कुछ रुपए, भी देगी। जो तुम्हारे पाँच बच्चों की देखभाल और उनकी पढ़ाई में काम आएँगे। जहाँ तक तुम्हारी बात है, तो तुम यह बच्चा नहीं चाहती हो, इसलिए तुम यह मान लेना कि तुमने छठे बच्चे को जन्म दिया ही नहीं। अब मामला तुम्हारा है और फैसला भी तुम्हें ही करना है, मैं तुम पर दबाव नहीं डाल सकती।’
‘‘मंजुला इस पर गंभीरता से विचार करने लगी। दो दिन बाद उसने अपना फैसला सुनाया; यानी वह तैयार हो गई थी। अब उसने दूध, फल और पैष्टिक भोजन लेना शुरू कर दिया, ताकि बच्चा सडौल और स्वस्थ हो। प्रसव के समय उसने एक बालिका को जन्म दिया और उसी समय सूचना पाकर डॉ. आरती की बहन भी वहाँ पहुँच गई। तय हुआ कि अगले दिन वह बच्चे को ले जाएगी। जब अगले दिन बच्चे को सौंपने की बात आई तो मंजुला ने इनकार कर दिया। अब तक उसके सीने में दूध आने लगा था और उसने बच्चे को पहली खुराक भी पिला दी थी। मंजुला का मातृत्व जाग उठा था। उसने बच्चे को उठाया और अपने सीने से लगाकर जोर- जोर से चिल्लाने लगी, ‘‘मैडम मैं मानती हूँ कि मैं बहुत गरीब हूँ, पर मैं एक मुट्ठी चावल में भी इस बच्ची के साथ बाँटकर पेट भर लूँगी। मैं इसे अपने से अलग नहीं कर सकती। इतनी नन्हीं सी बच्ची है यह। मैं ही तो हूँ इसका सहारा। हाँ, मैं अपने वादे से मुकर गई हूँ, लेकिन इस बच्ची से अलग होकर मैं रह नहीं पाऊँगी। कृपा करके आप मुझे माफ कर दीजिए।’
‘‘पाँच बच्चे तो उसके पहले से ही थे और अब अचानक इस बच्चे के प्रति भी कितनी ममता हो आई थी उसके दिल में। डॉ. आरती और उनकी बहन तो मंजुला के इस व्यवहार से बहुत परेशान हो गई थीं, क्योंकि कई दिन पहले से ही वे इस बच्चे को लेकर अनेक सपने सँजोए बैठी थीं। खैर, अब उन्हें एहसास हो गया था कि मातृत्व का एहसास अपने आप में एक अनोखा भाव है, जिसे दुनिया की किसी चीज से बदला नहीं जा सकता है। यह उस नाजुक बेल की तरह है, जो बहुत बड़े-बड़े फलों को जन्म देती है और उनका पोषण करती हैं।’’
अंत में यह कहते हुए मैंने अपना भाषण समाप्त किया-‘इतने वर्षों के अपने कार्यानुभव के दौरान मैंने कई बार यह अनुभव किया कि एक माँ अपने बच्चों के लिए अपना सबकुछ बलिदान कर देने से कभी पीछे नहीं हटती, क्योंकि मातृत्व वास्तव में हृदय में उत्पन्न होनेवाली एक स्वाभाविक वृत्ति है; जाति, धर्म संप्रदाय अथवा देश का इसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारी संस्कृति में भी माँ को समाज में सर्वोच्च स्थान देकर महिमामंडित किया गया है।’’
तालियों की गड़ागड़ाहट से पूरा वातावरण गूँज उठा। मैं भी संतुष्ट थी, क्योंकि मेरा भाषण मेरे अंतर की आवाज थी और अंतर से निकली हुई आवाज लोग आसानी से समझ लेते हैं।
मैं गोष्ठी से निकलकर अपने दफ्तर की ओर जाने वाली थी कि वहाँ मेरी नजर मीरा पर पड़ गई। मीरा दृष्टि विकलांग थी और एक दृष्टि विकलांग विद्यालय में अनाथ बच्चों को पढ़ाती थी। वह भी अपने विद्यालय की ओर से गोष्ठी में भाग लेने के लिए आई थी। मेरी उससे अच्छी जान पहचान थी, क्योंकि मैं भी ऐसे कई विद्यालयों से जुड़ी रही हूँ।
बाहर ढेर सारी दुकानें सजी थीं, जो बच्चों के सामान और विभिन्न प्रकार की पुस्तकों से भरी पड़ी थीं। उनमें से अधिकांश पुस्तकें मातृत्व से संबंधित तथा किशोर वय के बच्चों की देखभाल से संबंधित थीं। कुछ महिलाएँ अच्छी वक्ता भी थीं, जो अपने अनुभवों के आधार पर बोल रही थीं। मीडिया से जुड़े लोग भी वहाँ पहुँच चुके थे। वे विभिन्न ख्यातिप्राप्त लोगों के फोटो ले रहे थे। गोष्ठी आयोजन सामाजिक विज्ञान विभाग की ओर से किया गया था; इस कारण उसमें कई सरकारी अधिकारियों और विभिन्न आयु वर्ग के विद्यार्थियों की भीड़ थी।
जब मेरी बारी आई तो मैंने एक आँखों देखी घटना का वर्णन करते हुए बोलना शुरू किया-
‘‘मंजुला डॉ. आरती के यहाँ खाना बनाने का काम करती थीं। उसका पति ऐसा था कि उसने शायद ही कभी अपनी पत्नी या बच्चों के बारे में सोचा हो। पाँच बच्चों की माँ तो वह पहले से ही थी और जब छठी बार वह गर्भवती हुई तो उसने गर्भपात कराने का मन बना लिया। मातृत्व के बोझ से तो वह पहले ही दबी पड़ी थी, जिसके कारण उसका शरीर भी बहुत कमजोर हो गया था। उसके बच्चों में लड़कियाँ और लड़के-दोनों थे। किंतु इस बार वह बच्चा नहीं चाहती थी, इसलिए उसने ऑपरेशन करवाने का निश्चय कर लिया था।
‘‘उधर, डॉ. आरती कुछ और ही सोच रही थीं। उनकी एक बहन थी, जो संपन्न घराने में ब्याही थी; लेकिन वह निस्संतान थी और किसी नवजात शिशु को गोद लेना चाहती थी। अपनी बहन के बारे में सोचकर ही डॉ. आरती ने मंजुला को सलाह दी-‘मंजुला इस बार तुम बच्चे को जन्म दो। वह लड़का हो या लड़की, मेरी बहन उसे गोद ले लेगी और उसे लेकर यहाँ से दूर चली जाएगी। तुम्हें उसका चेहरा भी देखने की जरूरत नहीं है। इसके बदले में वह तुम्हें कुछ रुपए, भी देगी। जो तुम्हारे पाँच बच्चों की देखभाल और उनकी पढ़ाई में काम आएँगे। जहाँ तक तुम्हारी बात है, तो तुम यह बच्चा नहीं चाहती हो, इसलिए तुम यह मान लेना कि तुमने छठे बच्चे को जन्म दिया ही नहीं। अब मामला तुम्हारा है और फैसला भी तुम्हें ही करना है, मैं तुम पर दबाव नहीं डाल सकती।’
‘‘मंजुला इस पर गंभीरता से विचार करने लगी। दो दिन बाद उसने अपना फैसला सुनाया; यानी वह तैयार हो गई थी। अब उसने दूध, फल और पैष्टिक भोजन लेना शुरू कर दिया, ताकि बच्चा सडौल और स्वस्थ हो। प्रसव के समय उसने एक बालिका को जन्म दिया और उसी समय सूचना पाकर डॉ. आरती की बहन भी वहाँ पहुँच गई। तय हुआ कि अगले दिन वह बच्चे को ले जाएगी। जब अगले दिन बच्चे को सौंपने की बात आई तो मंजुला ने इनकार कर दिया। अब तक उसके सीने में दूध आने लगा था और उसने बच्चे को पहली खुराक भी पिला दी थी। मंजुला का मातृत्व जाग उठा था। उसने बच्चे को उठाया और अपने सीने से लगाकर जोर- जोर से चिल्लाने लगी, ‘‘मैडम मैं मानती हूँ कि मैं बहुत गरीब हूँ, पर मैं एक मुट्ठी चावल में भी इस बच्ची के साथ बाँटकर पेट भर लूँगी। मैं इसे अपने से अलग नहीं कर सकती। इतनी नन्हीं सी बच्ची है यह। मैं ही तो हूँ इसका सहारा। हाँ, मैं अपने वादे से मुकर गई हूँ, लेकिन इस बच्ची से अलग होकर मैं रह नहीं पाऊँगी। कृपा करके आप मुझे माफ कर दीजिए।’
‘‘पाँच बच्चे तो उसके पहले से ही थे और अब अचानक इस बच्चे के प्रति भी कितनी ममता हो आई थी उसके दिल में। डॉ. आरती और उनकी बहन तो मंजुला के इस व्यवहार से बहुत परेशान हो गई थीं, क्योंकि कई दिन पहले से ही वे इस बच्चे को लेकर अनेक सपने सँजोए बैठी थीं। खैर, अब उन्हें एहसास हो गया था कि मातृत्व का एहसास अपने आप में एक अनोखा भाव है, जिसे दुनिया की किसी चीज से बदला नहीं जा सकता है। यह उस नाजुक बेल की तरह है, जो बहुत बड़े-बड़े फलों को जन्म देती है और उनका पोषण करती हैं।’’
अंत में यह कहते हुए मैंने अपना भाषण समाप्त किया-‘इतने वर्षों के अपने कार्यानुभव के दौरान मैंने कई बार यह अनुभव किया कि एक माँ अपने बच्चों के लिए अपना सबकुछ बलिदान कर देने से कभी पीछे नहीं हटती, क्योंकि मातृत्व वास्तव में हृदय में उत्पन्न होनेवाली एक स्वाभाविक वृत्ति है; जाति, धर्म संप्रदाय अथवा देश का इसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हमारी संस्कृति में भी माँ को समाज में सर्वोच्च स्थान देकर महिमामंडित किया गया है।’’
तालियों की गड़ागड़ाहट से पूरा वातावरण गूँज उठा। मैं भी संतुष्ट थी, क्योंकि मेरा भाषण मेरे अंतर की आवाज थी और अंतर से निकली हुई आवाज लोग आसानी से समझ लेते हैं।
मैं गोष्ठी से निकलकर अपने दफ्तर की ओर जाने वाली थी कि वहाँ मेरी नजर मीरा पर पड़ गई। मीरा दृष्टि विकलांग थी और एक दृष्टि विकलांग विद्यालय में अनाथ बच्चों को पढ़ाती थी। वह भी अपने विद्यालय की ओर से गोष्ठी में भाग लेने के लिए आई थी। मेरी उससे अच्छी जान पहचान थी, क्योंकि मैं भी ऐसे कई विद्यालयों से जुड़ी रही हूँ।
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